उत्तर भारत में बुल्स ट्रैंच भट्ठे (बी.टी.के.) में पकायी गयी केवल 60 प्रतिशत ईंटें ही क्लास-1 श्रेणी की होती हैं। बाकी की 40 प्रतिशत ईंटें या तो पूरी तरह पक नहीं पातीं या ज्यादा पक जाती हैं या फिर टूट जाती हैं।
खराब गुणवत्ता वाली ईंटों का प्रतिशत इतना अधिक (40 प्रतिशत) होने की वजह से आप जैसे भट्ठा मालिक को एक साल में 10 लाख से 30 लाख रुपये तक की आय का नुकसान हो सकता है। इतना ही नहीं, खराब गुणवत्ता वाली ईंटों की बिक्री में आपको ज्यादा समय लगता है (कम से कम एक साल) फलतः आपकी इन्वेन्टरी की लागत बढ़ती है और आपकी पूंजी भी फँस जाती है।
बी.टी.के. में अधपकी ईंटों के उत्पादन के प्रमुख कारण हैं:
ईंटों की पूर्ण रूप से पकाई के लिए, उन्हें 980 से 1030 डिग्री सेल्सियस तापमान में पकाया जाना चाहिए (उत्तर भारत में) और उन्हें इसी तापमान में कम से कम 12 घंटे तक रखा जाना चाहिए। बी.टी.के. में ज्यादातर ईंधन भट्ठे के बीच वाले या नीचे वाले हिस्से में जलता है। इसलिए भट्ठे के ऊपरी भाग में अधिकतम तापमान भट्ठे के मध्य और निचले हिस्से में अधिकतम तापमान की तुलना में आमतौर पर 70 से 100 डिग्री सेल्सियस कम होता है। साथ ही भट्ठे की ऊपरी सतह और बाहरी दीवारों से होने वाली गर्माहट की हानि के कारण इतने ज्यादा समय (सामान्यतः 12 घंटे) तक इस तापमान को बनाये रख पाना संभव नहीं होता है। इसलिए भट्ठे के ऊपरी भाग में रखी ईंटें अधपकी रह जाती हैं। घाटी से गर्माहट के नुकसान और वहां से भट्ठे के अंदर ठंडी हवा के घुसने के परिणामस्वरूप घाटी के नज़दीक अधपकी ईंटों का उत्पादन अधिक होता है।
जरूरत से ज्यादा पकी ईंटों के उत्पादन के कारण हैं:
बी.टी.के. में ईंधन का झुकान रुक-रुक के बड़ी-बड़ी मात्रा में किया जाता है। झोंके गये कोयले का आकार भी आमतौर पर बड़ा होता है। सामान्यतः एक लाइन बंद करने से पहले अतिरिक्त मात्रा में ईंधन झोंका जाता है। ईंधन झुकाई की इस प्रक्रिया के कारण भट्ठे के झूँक और तले पर ईंधन जमा हो जाता है। आमतौर पर ईंधन झुकाई के दौरान झूँक पर इकट्ठा हुए ईंधन को साफ़ करने के लिए एक लोहे की रॉड (सींख) का उपयोग किया जाता है; लेकिन सींख का उपयोग लाइन बंद करने के बाद संभव नहीं हो पाता। ईंधन के इस तरह जमा होने के कारण भट्ठे के झूँक और तले के निकट स्थित ईंटें आवश्यकता से अधिक पक जाती हैं।
ईंटों के टूटने के कारण हैं:
जब भट्ठे में ईंटों को पकने से पूर्व गरम करने वाले क्षेत्र (प्रीहीटिंग ज़ोन) में कच्ची ईंटें प्रीहीट की जाती हैं तो पहले ईंटों के अन्दर की नमी का वाष्पीकरण होता है। इस चरण के दौरान ईंटों को धीमी गति से गरम करना चाहिए ताकि ईंटों की सतहों और उनके अंदर से नमी को निकलने के लिए पूरा समय मिले।
यदि कच्ची ईंटों में नमी की मात्रा अधिक होती है तो उनमें से नमी हटाने के लिए अधिक समय चाहिए होता है, परन्तु बी०टी०के० भट्ठे में प्रीहीटिंग ज़ोन छोटी होने के कारण ईंटों की नमी पूरी तरह निकलने के पहले ही आग उन तक पहुँच जाती है। जब नमी वाली ईंटों को तेज़ी से गर्म किया जाता है तो उनकी सतह सूख कर सख्त हो जाती है, जबकि कुछ नमी ईंटों के अंदरूनी भाग में रह जाती है। जब अंदरूनी भाग की यह नमी वाष्पीकृत होकर बाहर निकलती है तो यह ईंटों में दरारें पैदा करती है, जो ईंटों के टूटने का कारण बनती है।
भट्ठे की असमतल फर्श या ईंटों की असमान ढंग से भराई करने के कारण ईंटों पर असमान दबाव पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप ईंटों में टूट-फूट होती है।